ओशो: एक जीवन, अनेक आयाम
भगवान श्री रजनीश, जिन्हें पूरी दुनिया ओशो के नाम से जानती है, एक ऐसे रहस्यदर्शी, गुरु और दार्शनिक थे जिन्होंने अपने विचारों और प्रवचनों से लाखों लोगों के जीवन को छुआ और प्रभावित किया।
भगवान श्री रजनीश का जीवन एक खुली किताब की तरह था, जिसमें निरंतर खोज, प्रयोग और एक अथाह ज्ञान का सागर समाहित था।
प्रारंभिक जीवन और खोज (1931-1970):
ओशो का जन्म 11 दिसंबर, 1931 को मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा गांव में हुआ था। उनका बचपन बेहद साधारण रहा, लेकिन उनमें बचपन से ही गहन जिज्ञासा और परंपराओं को प्रश्न करने की प्रवृत्ति थी। किशोरावस्था से ही वे ध्यान और आत्म-खोज में लीन रहते थे। 21 साल की उम्र में, 21 मार्च, 1953 को, उन्हें संबोधि (आत्मज्ञान) प्राप्त हुआ, जिसे वे अपने जीवन का केंद्रीय बिंदु मानते थे।
संबोधि के बाद, उन्होंने कुछ समय तक जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में पढ़ाया। इस दौरान वे पूरे भारत में यात्रा करते रहे और 'आचार्य रजनीश' के नाम से प्रवचन दिए। उन्होंने भारतीय समाज, धर्म और राजनीति पर तीखी टिप्पणियां कीं, जिससे वे जल्द ही एक विवादास्पद व्यक्ति बन गए। उनका मानना था कि समाज में प्रचलित रूढ़िवादिता और दमनकारी नियम व्यक्ति के विकास में बाधा डालते हैं।
नव-संन्यास और ध्यान शिविर (1970-1981):
1970 का दशक ओशो के जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। उन्होंने अपने अनुयायियों को 'नव-संन्यासी' के रूप में दीक्षित करना शुरू किया। यह संन्यास पारंपरिक संन्यास से अलग था, जिसमें दुनिया का त्याग करने के बजाय दुनिया में रहते हुए आंतरिक स्वतंत्रता प्राप्त करने पर जोर दिया गया था। उन्होंने अपने अनुयायियों को नए संन्यास के प्रतीक के रूप में गेरुए वस्त्र और एक माला धारण करने को कहा।
इसी दौरान उन्होंने अनेक ध्यान विधियों का विकास किया, जिनमें गतिशील ध्यान (Dynamic Meditation) और कुंडलिनी ध्यान (Kundalini Meditation) सबसे प्रसिद्ध हैं। इन विधियों का उद्देश्य व्यक्ति को शरीर और मन के माध्यम से अपनी आंतरिक ऊर्जा को जगाने और मुक्ति प्राप्त करने में मदद करना था। उनके ध्यान शिविरों में हजारों की संख्या में लोग भाग लेने लगे, जिससे पुणे में उनका आश्रम एक अंतरराष्ट्रीय केंद्र बन गया।
ओरेगन और राजनैतिक विवाद (1981-1985):
1981 में, ओशो अपने कुछ प्रमुख अनुयायियों के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए और ओरेगन के रेगिस्तान में एक बड़ा कम्यून स्थापित किया, जिसे 'रजनीशपुरम' नाम दिया गया। यह कम्यून एक आत्मनिर्भर शहर के रूप में विकसित हुआ, जिसमें हजारों लोग रहते थे और काम करते थे। हालांकि, यह कदम जल्द ही स्थानीय निवासियों और अमेरिकी सरकार के साथ गंभीर विवादों में घिर गया।
ओशो और उनके समुदाय पर कई आरोप लगे, जिनमें गैरकानूनी गतिविधियां और बायो-टेररिज्म के प्रयास भी शामिल थे। इन विवादों के चलते 1985 में ओशो को संयुक्त राज्य अमेरिका छोड़ना पड़ा। यह दौर उनके जीवन का एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण और विवादास्पद अध्याय था।
विश्व यात्रा और पुणे वापसी (1985-1990):
अमेरिका छोड़ने के बाद, ओशो ने कई देशों की यात्रा की, लेकिन अधिकांश देशों ने उन्हें प्रवेश देने से इनकार कर दिया। अंततः, वे भारत लौट आए और पुणे में अपने आश्रम में फिर से बस गए। इस दौरान भी उनके प्रवचन और व्याख्यान जारी रहे, और उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ती रही।
अंतिम वर्ष और विरासत (1990):
1989 में, उन्होंने औपचारिक रूप से अपना नाम 'भगवान श्री रजनीश' से बदलकर 'ओशो' कर दिया, जिसका अर्थ है 'सागर में विलीन होना' या 'दिव्यता से एकाकार'। उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता जा रहा था। 19 जनवरी, 1990 को ओशो ने पुणे में अपने भौतिक शरीर का त्याग किया।
ओशो का जीवन एक अनूठी यात्रा थी, जिसमें वे एक साधारण बालक से एक वैश्विक आध्यात्मिक गुरु बने। उनके विचारों ने धर्म, ध्यान, प्रेम, संबंध, मृत्यु और जीवन के हर पहलू पर गहरी रोशनी डाली। वे हमेशा व्यक्ति की स्वतंत्रता, स्वयं की खोज और अंतरात्मा की आवाज सुनने पर जोर देते थे। भले ही उनके जीवन में विवाद रहे हों, लेकिन उनके संदेश और शिक्षाएं आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करती हैं और उन्हें आंतरिक शांति और आत्मज्ञान की ओर ले जाती हैं। ओशो एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने "धर्म" को एक नए अर्थ में परिभाषित किया - एक व्यक्तिगत और आंतरिक यात्रा, किसी भी बाहरी नियम या संस्था से परे।