महाराष्ट्र में भाषा विवाद और ठाकरे बंधुओं का ऐतिहासिक मिलन: एक विश्लेषण
हाल ही में महाराष्ट्र में मराठी भाषा को लेकर छिड़ा विवाद एक बार फिर उग्र रूप धारण कर चुका है। राज्य सरकार के प्राथमिक कक्षाओं (कक्षा 1 से 5) में हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाने के आदेश के बाद से सियासी पारा चढ़ा हुआ है।
मराठी भाषा मुद्दे पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) प्रमुख राज ठाकरे और शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) के प्रमुख उद्धव ठाकरे एक साथ आ गए हैं, जो पिछले 19 सालों में पहला ऐसा मौका है जब ठाकरे परिवार के ये दो अहम सदस्य किसी सार्वजनिक मंच पर एक साथ नज़र आए हैं। यह मिलन न सिर्फ महाराष्ट्र की राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत है, बल्कि मराठी अस्मिता के मुद्दे पर एक बड़ी एकजुटता का प्रतीक भी बन गया है।
भाषा विवाद की जड़:
महाराष्ट्र सरकार ने हाल ही में एक शासनादेश (GR) जारी किया था, जिसमें मराठी और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में कक्षा एक से पांच तक हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा के रूप में पढ़ाना अनिवार्य किया गया था। इस फैसले को लेकर राजनेताओं और मराठी संगठनों में भारी रोष देखने को मिला। उनका तर्क था कि यह मराठी भाषा पर हिंदी को थोपने का प्रयास है, जिससे मराठी संस्कृति और अस्मिता को खतरा होगा। हालांकि, विपक्ष के मुखर विरोध के बाद सरकार ने हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा की जगह अब वैकल्पिक कर दिया है, लेकिन इस मुद्दे पर सियासत अभी भी गरमाई हुई है।
राज ठाकरे का मुखर विरोध और आंदोलन का ऐलान:
राज ठाकरे, जो हमेशा से मराठी मानुस और मराठी अस्मिता के प्रबल समर्थक रहे हैं, ने इस आदेश का कड़ा विरोध किया। उन्होंने तुरंत आंदोलन का ऐलान किया और अपने कार्यकर्ताओं को सड़कों पर उतरने का निर्देश दिया। मनसे कार्यकर्ताओं द्वारा हिंदी न बोलने पर कथित मारपीट की कुछ घटनाएं भी सामने आईं, जिसने विवाद को और हवा दी। राज ठाकरे ने स्पष्ट किया कि उन्हें हिंदी से कोई द्वेष नहीं है, लेकिन इसे मराठी भाषियों पर थोपना अन्यायपूर्ण है। उन्होंने सवाल उठाया कि जब अन्य हिंदी भाषी राज्यों में उनकी अपनी भाषाओं को प्राथमिकता दी जाती है, तो महाराष्ट्र में हिंदी को क्यों अनिवार्य किया जा रहा है।
उद्धव ठाकरे का समर्थन और ऐतिहासिक सहयोग:
इस भाषा विवाद में उद्धव ठाकरे का राज ठाकरे को समर्थन देना महाराष्ट्र की राजनीति की एक महत्वपूर्ण घटना है। उद्धव ठाकरे की शिवसेना (यूबीटी) ने भी सरकार के इस फैसले का पुरजोर विरोध किया। उद्धव ने हिंदी को अनिवार्य किए जाने के खिलाफ राज ठाकरे के आंदोलन को पूर्ण समर्थन देने का ऐलान किया। यह कदम ऐसे समय में आया है जब शिवसेना (यूबीटी) लोकसभा चुनाव में भले ही अच्छा प्रदर्शन कर चुकी हो, लेकिन मराठी वोटों के बिखराव को लेकर चिंतित है। उद्धव ठाकरे को शायद यह अहसास हुआ है कि मराठी अस्मिता का मुद्दा उनकी सियासत के लिए एक संजीवनी साबित हो सकता है, और इस पर राज ठाकरे के साथ आना उनके लिए फायदेमंद हो सकता है।
20 साल बाद ठाकरे बंधुओं का एक मंच पर आना:
यह लगभग 19-20 साल बाद का ऐतिहासिक क्षण है जब राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे एक ही मंच पर नजर आए। 5 जुलाई को मुंबई के वर्ली स्थित NSCI डोम में एक भव्य 'विजय रैली' का आयोजन किया गया। इस रैली का मूल उद्देश्य सरकार के हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में लागू करने के निर्णय के खिलाफ आवाज उठाना था, हालांकि रैली से पहले ही सरकार ने अपना फैसला वापस ले लिया था। इस मंच पर दोनों भाइयों ने गले मिलकर मराठी एकता का संदेश दिया और सरकार की 'त्रि-भाषा नीति' पर तीखा हमला बोला। राज ठाकरे ने कहा कि "मैंने कहा था कि झगड़े से बड़ा महाराष्ट्र है। हम 20 साल बाद एक मंच पर आए हैं। हमारे लिए कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है। सिर्फ महाराष्ट्र और मराठी हमारे लिए एजेंडा है।" वहीं, उद्धव ठाकरे ने भी मराठी अस्मिता के मुद्दे पर एकजुटता का आह्वान किया।
सियासी मायने:
ठाकरे बंधुओं का यह मिलन महाराष्ट्र की राजनीति में कई संकेत देता है:
- मराठी अस्मिता का पुनरुत्थान: यह दर्शाता है कि मराठी भाषा और पहचान का मुद्दा आज भी महाराष्ट्र की राजनीति में कितना महत्वपूर्ण है।
- बीजेपी के लिए चुनौती: यह महायुति सरकार, विशेषकर बीजेपी के लिए एक चुनौती पेश करता है, क्योंकि ठाकरे बंधुओं का एक साथ आना मराठी वोटों को एकजुट कर सकता है।
- मुंबई महानगर पालिका चुनाव पर असर: आगामी मुंबई महानगर पालिका चुनावों को देखते हुए यह मिलन महत्वपूर्ण है। दोनों भाई मुंबई में मराठी वोट बैंक पर अपनी पकड़ मजबूत करने का प्रयास कर रहे हैं।
- ठाकरे विरासत का पुनर्जीवन: यह बाल ठाकरे की विरासत को एक बार फिर एकजुट करने और शिवसेना की मूल हिंदुत्व और मराठी एजेंडे को मजबूत करने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है।
हालांकि सरकार ने अपना फैसला वापस ले लिया है, फिर भी राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे का यह मिलन महाराष्ट्र की राजनीति में एक नई ऊर्जा का संचार कर चुका है। यह देखना दिलचस्प होगा कि यह एकजुटता भविष्य में क्या रंग लाती है और क्या ठाकरे बंधु मराठी अस्मिता के इस सूत्र से अपनी पुरानी राजनीतिक ताकत को फिर से हासिल कर पाते हैं।